अक्सर सोचती हूँ वो ''मैं'' के वजूद की खोखलाहट थी जिस में ''तू'' की आवाज़ गूँजती थी मैं और तू गुम-गश्ता ज़ात पर बात ''मैं'' और ''तू'' की कहाँ मेरी और तेरी है मैं जो मेरी कुछ नहीं लगती अक्सर सोचती हूँ शायद तुम्हारा ''तू'' भी तुम्हारा न था न जाने कितने सज्दों की ताबानी चौखट चौखट बाँट चुका था और ख़ामोशी की चादर ढके मुझ को तक रहा था मैं अक्सर सोचती हूँ तू वो न था जिसे मैं ने सोचा था तू ने या फिर शायद तक़दीर ने तुझे सर-ता-पा ढक रखा था