कहीं पे दूर किसी अजनबी सी घाटी में किसी का एक हसीं शाहकार हो जैसे मुसव्विरी की इक उम्दा मिसाल लगती थी कोई इनायत-ए-परवर-दिगार हो जैसे ये ज़िंदगी की हर इक रंग से थी बेगानी ख़याल ओ ख़्वाब की बातों से थी वो अनजानी बनाने वाले ने उस को बना के छोड़ा था और उस के चेहरे पे इक नाम लिख के छोड़ा था न दी ज़बाँ न कोई आईना दिया उस को बना के बुत यूँ ज़मीं पर सजा दिया उस को उसे ज़माने की बातों से कुछ गिला ही न था सिवाए जिस्म के एहसास कुछ मिला ही न था फिर एक रोज़ किसी नर्म नर्म झोंके ने कहा ये कान में आ कर बहुत ही चुपके से ज़रा सा आँखों को खोलो तो तुम को दिखलाऊँ महकती ज़िंदगी कैसे है तुम को सिखलाऊँ कहाँ से आई हो कब से यहाँ खड़ी हो तुम मिरे वजूद के हर रंग से जुड़ी हो तुम ये गुनगुनाती हुई वादियाँ ये गुल-कारी नदी की झूमती गाती हुई ये किलकारी ये धूप छाँव के बादल ये मख़मली एहसास मचल रहे हैं बहुत प्यार से तुम्हारे पास महकते दिल हैं यहाँ ख़ुशबू-ए-मोहब्बत से ख़ुदा के नूर से पैदा हुई हरारत से हवा का झोंका जो कानों में उस के बोल गया तो उस ने चौंक के पलकों को अपनी खोल दिया ये वादियों का हसीं रंग उस ने जब देखा हुई ये सोच के हैरान उस ने अब देखा बदन में जितने थे एहसास वो मचलने लगे नज़ारे उस की निगाहों के साथ चलने लगे ये रंग ओ नूर के क़िस्से समझ में आने लगे हसीन आँखों में कुछ ख़्वाब झिलमिलाने लगे और ऐसे हो के मुकम्मल वो हुस्न की मूरत किसी के प्यार की ख़ुश्बू से बन गई औरत