मैं ने जब पहले-पहल देखा था ये मुझे कितने भले लगते थे तुम ने गुल-दान में रक्खा था इन्हें थी मिरे कमरे की ज़ीनत इन से और अब थक गईं आँखें मेरी देखते देखते सूरत इन की ये महकते हैं, न कुम्हलाते हैं दिन इन्हें छू के निकल जाते हैं काश मौसम की अमल-दारी में ये भी पाबंद-ए-तग़य्युर होते जब ये खिलते तो कोई चुन चुन कर गूँधता इन की लड़ी जूड़े में और जब उन पे ख़िज़ाँ आ जाती फेंक देता मैं इन्हें कूड़े में