बंद आँखें किए सर-ए-साहिल कल सहर-दम ये सोचता था मैं नींद की गोद में ज़माना है, बेड़ियाँ तोड़ दूँ, निकल जाऊँ वादी-ए-हू में जा के खो जाऊँ दफ़अतन एक मौज ने बढ़ कर अपना सर मेरे पाँव पर रक्खा और कहा देख चश्म-ए-दिल से देख नील-गूँ बहर कितना दिलकश है है ज़मीं किस क़दर हसीन-ओ-जमील आसमाँ कितना ख़ूब-सूरत है लेकिन ऐ शाहकार-ए-दस्त-ए-अज़ल जिस तरफ़ का तिरा इरादा है क्या पता वो दयार कैसा है ये फ़ज़ा ये हवा ये हुस्न तुझे क्या ख़बर है, वहाँ मिले न मिले? और यूँ बंद हो गईं मुझ पर हर तरफ़ से फ़रार की राहें!