मिरे घर की देवी के बाला-ए-सीना खिला है मोहब्बत का ताज़ा कँवल दरख़्शंदा जैसे सर-ए-शाम ज़ोहरा उफ़ुक़ पर समुंदर के आए निकल वो हाथों पे अपने खिलाती है उस को वो पैरों पे अपने झुलाती है उस को वो रखती है आँखों में पुतली बना के वो सोते में रोता जो उठ बैठता है तो बोसों से मोती से आँसू वो पोंछे वो सौ जान से हर अदा पर फ़िदा है वो है लाल दोनों जहाँ जिस पे सदक़े ये नन्ही सी जाँ और ग़ासिब के दा'वे मिरा तख़्त-ए-ज़र्रीं है तेरे हवाले तिरे दस्त-ओ-बाज़ू फ़रिश्तों के दस्ते तू है वो ज़बरदस्त जीते पे जीते