था अँधेरा हर तरफ़ राह भी मिलती न थी एक नन्हा सा दिया रौशन हुआ और अँधेरा छट गया इक मुसाफ़िर रात को खा रहा था ठोकरें चाँद की नन्ही किरन छिटकी ज़रा और रस्ता मिल गया था परेशाँ देर से एक दहक़ाँ धूप में एक टुकड़ा अब्र का आया वहाँ और साया हो गया बाग़ में उड़ती थी धूल सारे पत्ते ज़र्द थे एक नन्ही सी कली चटकी जो कली मुस्कुरा उट्ठा चमन न था दिल में वलवला ज़िंदगी ख़ामोशी थी एक नन्ही सी हँसी नग़्मा बनी खिल उठी दिल की कली एक दिया एक किरन एक टुकड़ा अब्र का इक कली एक नन्ही सी हँसी हैं निशान-ए-ज़िंदगी रौशनी ही रौशनी