वो पर्दा रू-ए-पुर-अनवार से उठा न सके हम अपने सोए हुए बख़्त को जगा न सके तड़प तड़प के तो बिस्मिल ने जान तक दे दी वो आब-ए-तेग़ के दो घूँट भी पिला न सके हमारी उन की मोहब्बत रही इसी सूरत उधर बढ़ा न सके हम इधर घटा न सके हज़ार वलवले मौजूद थे तबीअत में मगर जब उन से मिली आँख भी मिला न सके नज़र मिलाते ही साक़ी ने कर दिया बे-ख़ुद पिलाई ऐसी कि फिर होश में हम आ न सके न पूछ क़िस्सा-ए-बे-चारगी-ए-इश्क़ न पूछ ये राज़ वो है किसी को जो हम बता न सके जनाब-ए-'नूर' हमें तो मिटा दिया लेकिन हमारे नक़्श-ए-मोहब्बत को वो मिटा न सके