ज़िंदगी बहती रही आब-ए-रवाँ की मानिंद कभी हल्की सी कभी ख़्वाब-ए-गिराँ की मानिंद वक़्त की लहरों पे मा'सूम सा चेहरा उभरा और फिर हो गया गुम वहम-ओ-गुमाँ की मानिंद दिलरुबा चेहरे पे क्यों छाया क़ज़ा का साया क्यों बहारों का हुआ रंग ख़िज़ाँ के मानिंद हो गई क्यों वो चहकती हुई बुलबुल ख़ामोश क्यों गिरा फूल जो गुलशन में था जाँ की मानिंद रिंद झूम उठते थे मस्तान अदा पर जिस की अब यहाँ कौन है उस पीर-ए-मुग़ाँ की मानिंद ख़ाक उड़ती है जहाँ क़हक़हे होते थे बुलंद नग़्मा-ए-बज़्म है अब आह-ओ-फ़ुग़ाँ की मानिंद गर्मी-ए-दिल थी वही उस की वही ज़ौक़-ए-तलब ढलते सायों में वो था मर्द-ए-जवाँ की मानिंद उम्र भर याद-ए-चतर हम को रुलाएगी 'हबीब' ग़म सताएगी सदा दर्द-ए-निहाँ की मानिंद