क्या नग़्मा-हा-ए-कैफ़ का दरिया बहा गया ख़ुद हुस्न को जहाँ में हसीं-तर बना गया ऐ शाइ'र-ए-शबाब-ओ-नवा-संज-ए-ज़िंदगी मिस्ल-ए-बहार आ के तू आलम पे छा गया तू हुस्न की निगाह था और इश्क़ की ज़बाँ गीतों में रंग-ओ-रूप की दुनिया बसा गया रंगीनियाँ बहार की हर सू बिखर गई बे-कैफ़ी-ए-ख़िज़ाँ का कभी रंग छा गया टूटे हुए दिलों की सदा लब पे आ गई नग़्मा कभी तू कैफ़-ओ-मसर्रत का गा गया इंसाँ के ग़म में सीना-ए-क़ुदरत भी शक़ हुआ माँ की तरह से मौत को भी प्यार आ गया अफ़्सुर्दा ज़िंदगी को मिली तुझ से ताज़गी जो दिल तड़प रहा था वो आराम पा गया तू कर के सर-बुलंद वतन के वक़ार को दिल में हर एक फ़र्द-ए-वतन के समा गया हिन्दोस्ताँ को दे के दो-आलम की अज़्मतें तू बे-नवा फ़क़ीर सा गाता चला गया