मैं था आवारा-ओ-बरजस्ता-ख़िराम औराक़-ए-बंदगी उस की पनाह नामा-ए-इश्क़ था रिश्तों का जवाज़ बर्क़-रौ में भी था कुछ वो भी रहा इश्क़-ए-एहसास-ए-जुनूँ के आसार कुछ अजब तरह बने नक़्श-ओ-निगार फ़र्त-ए-जज़्बात से इस दर्जा रहे हम लर्ज़ां तीसरी क़ुव्वत-ए-वसवास कहाँ से आई और फिर टूट गया लर्ज़ा-बर-अंदाम तअ'ल्लुक़ का पुल सब्ज़ अरमानों पे वो ओस पड़ी मत पूछो अब तो वो सहन-ए-तख़य्युल भी है मुद्दत से उदास गाहे गाहे किसी पहलू-ए-फ़लक में जानाँ कुछ चमन-ज़ार महक उठते हैं और आती है सदा-ए-बुलबुल इश्क़ वो ओस का क़तरा है जिस के पड़ते ही टूट जाती है सुराही गुल की