मेहरबाँ दिन वो मिरा दर्द-शनास अपनी ज़म्बील के सद-रंग ज़ख़ीरे से मुझे रोज़ देता रहा सौग़ात नई मुझ पे करता रहा हर रोज़ इनायात नई दिल को बर्माता रहा ख़ूँ को गर्माता रहा आई जिस वक़्त मगर रात नई अपना सरमाया समेटे हुए मस्तूर हुआ दिल मिरा फ़ैज़-ए-गुरेज़ाँ से शिकस्ता-ख़ातिर शब के ज़िंदाँ में गिरफ़्तार ग़रीब-ओ-नादार इक नए ख़ौफ़ के आज़ार से मामूर हुआ