मेरे इर्द-गर्द इक हिसार है इक हिसार जिस के गीर-ओ-दार मैं बे-अमाँ ग़ुबार में मेरा जिस्म मेरी ज़ात तार तार है वक़्त एक लफ़्ज़ जो असीर अपने मानवी बहिश्त में वक़्त इक तसलसुल-ए-ख़याल जिस के दूसरे इक ख़ला-ए-बे-कराँ की जाँ-कशाँ गिरफ़्त है इस हिसार से अगर निकल सकूँ (जिस्म मुंजमिद चटान बर्फ़ की मैं अगर पिघल सकूँ) रेज़ा रेज़ा जिस्म को समेट कर इक वजूद-ए-ताज़ा-तर में ढल सकूँ फिर न जाने कौन सा ग़ुबार मुझ को घेर ले कौन सा हिसार मुझ को घेर ले