वो अब के आए तो सच उन के साथ था लेकिन अजीब तरह का बे-दर्द सच था कहते थे तुम्हारा झूट है नंगा यही तो इक सच है हम उन से कह न सके हमारे इज़्न पे जो क़स्र-ओ-बाम उगाता था वो जिन हमें में था वो मर चुका है हम लेकिन जिएँ तो कैसे जिएँ और मरें तो कैसे मरें कि तन बरहना पड़े हैं न जाने कौन सा है दश्त सम्त है न उफ़ुक़ बस एक मंज़र-ए-बे-रंग-ओ-सौत है उस को ख़ला कहें कि अदम वो हम से सदियों पुराना चराग़ छीन गए नए चराग़ पुराने चराग़ के बदले वो काश अब के भी ऐसा फ़रेब दे जाते