मेरी तमाम काएनात घास के वरक़ की तरह सूखने लगे तो तुम इस तन्हा रस्ते पे आओगे? तख़्लीक़ के चुप मालिक! आक़ा! ख़ुदा! तुम कि खोए होऊँ के दर्द मुद्दतों सँभाले रहे हो उस रस्ते पे कि जहाँ मुझे कभी यक़ीं न हो सका कि पानी माँगूँ तो कैसे रोटी या आफ़ियत या महज़ पहचान की भीक माँगूँ तो कैसे तुम आओगे? जले हुए जिस्म के इस रस्ते पे? मौत के दूसरे साहिल पे धुएँ की तरह पाश पाश बूढ़ी हड्डियों की इस सर-ज़मीन पे? यहाँ बे-नुत्क़ लफ़्ज़ एक दूसरे का मुँह तकते हैं और हर दुआ ने लफ़्ज़ों से मुँह मोड़ लिया है