रात ख़ामुशी ले कर झूलती है पेड़ों पर दश्त दश्त वीराँ हैं रौशनी के हंगामे तीरगी बरसती है ऊँचे नीचे टीलों पर नींद क्यूँ नहीं आती मैं उदास रहता हूँ दिन के गर्म मेले में मैं मलूल रहता हूँ शाम के झमेले में मैं शराब पी कर भी होशियार रहता हूँ जो भी दिल पे लग जाए मैं वो ज़ख़्म सहता हूँ सोचता हूँ दुनिया में मैं भी कितना तन्हा हूँ चाँदनी के पहलू में दिल नवाज़ किरनों को ओढ़ कर मैं लेटा हूँ नींद क्यूँ नहीं आती नींद एक ख़ुशबू है रात की फ़ज़ाओं में कू-ब-कू भटकती है मेरे घर नहीं आती मुझ से दूर रहती है फिर मैं ख़ुद से कहता हूँ नींद क्यूँ नहीं आती