लरज़ते बदन रंग कोहरे में लिपटे हुए अध-मरी रौशनी का कफ़न ओढ़ कर मौत की सर-ज़मीं में उजालों पे क़ुर्बान होने से पहले बहुत देर तक अपने एहसास की आँच सहते रहे शाम नीम तारीक राहों पे माथा रगड़ती रही काँपती थरथराती शब-ए-ग़म के साँचे में ढलने से पहले बहुत देर तक सर्द फ़ानूस के पास ठहरी रही चाँद आकाश के गहरे नीले समुंदर में तारों की इन्दर-सभा से बहुत देर तक मौत की सरज़मीं पर उजालों की गुल-पोशियाँ कर रहा था लहद-ता-लहद कोई साया न ख़ाका क़दम-ता-क़दम मंज़िलों के निशाँ गुम मकीनों से ख़ाली मकानों के दर तख़्तियाँ रहने वालों के नामों की ले कर बहुत देर तक मुंतज़िर थे मगर कोई दस्तक न आहट इधर बे-ज़बाँ शहर की तीरगी में लरज़ते बदन कैफ़-ओ-कम के बदलते हुए ज़ावियों में उलझते छलकते बिखरते सिमटते रहे और कोहरे में लिपटे हुए शाख़-दर-शाख़ रौशनी से गुज़र कर सलीबों के साए में दम ले रहे हैं