हर कोई काफ़िर-गरों में नफ़रा-ओ-नम्माम है मेरी आँखें देखती हैं उन का जो अंजाम है क्या कहूँ क्या गुल खिलाए हैं अबुल-बरकात ने फ़ित्ना-आराई मुसलमानों में उस का काम है दुख़्तरान-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत रक़्स फ़रमाती रहीं इस नई तहज़ीब में कल्चर इसी का नाम है रंडियाँ ना'त-ए-नबी पर नुक्ता-फ़रसाई करें तू कहाँ ऐ इंतिक़ाम-ए-गर्दिश-ए-अय्याम है गायकी के ज़ेर-ओ-बम से हम भला क्या आश्ना रेडियो का हम ग़रीबों पर बड़ा इनआ'म है नस्ल-ए-नौ की पुख़्तगी-ए-फ़न का फ़र्मूदा है ये अगले वक़्तों के बुज़ुर्गों की फ़िरासत ख़ाम है ख़्वाजा-ए-कौनैन की चश्म-ए-करम के फ़ैज़ से मेरा हर हर शे'र 'शोरिश' पारा-ए-इल्हाम है