ब-ज़ोम-ए-ख़्वेश अपने दौर के सुक़रात-ए-सानी हैं मुक़द्दस लोग हैं 'अहमद-रज़ा-ख़ाँ’ की निशानी हैं ग़ुलामान-ए-रसूलुल्लाह की तकफ़ीर करते हैं हमेशा इंशिराह-ए-सद्र से तक़रीर करते हैं ज़बान-आवर हैं लेकिन ज़ाहिदा परवीन की लय हैं कई नादिर किताबों के मुसन्निफ़ हैं बड़ी शय हैं रऊनत से जबीं में ज़ोह्द के असरार घुलते हैं निगाहों के ग़ज़ब से सैंकड़ों अल्फ़ाज़ खुलते हैं तकब्बुर ज़ाविए बनता हुआ गुफ़्तार की लौ में हज़ारों ख़ुसरुओं का दबदबा रफ़्तार की रो में ज़बान-ए-शुस्ता-ओ-रफ़्ता पे नस्तालीक़ बोली है मुसल्ले पर मुरादाबाद के पानों की ढोली है ब-ज़ोम-ए-ख़्वेश ज़ोह्द-ओ-इत्तिक़ा के बीज बोते हैं ख़ुदा के फ़ज़्ल से हूरों के शौहर ऐसे होते हैं