हर जल्वा जहाँगीर था जिस वक़्त जवाँ थी कहते हैं जिसे नूर-जहाँ नूर-ए-जहाँ थी था हूर का टुकड़ा बुत-ए-तन्नाज़ का मुखड़ा इक शम्अ' थी फ़ानूस में जो नूर-फ़िशाँ थी अंदाज़ में शोख़ी में करिश्मे में अदा में तलवार थी बर्छी थी कटारी थी सिनाँ थी रुख़्सार-ए-जहाँ-ताब की पड़ती थीं शुआएँ या हुस्न के दरिया से कोई मौज रवाँ थी बिजली थी चमकती हुई दामान-ए-शफ़क़ में या मौज-ए-तबस्सुम थी लबों में जो निहाँ थी गुलज़ार-ए-मआ'नी की चहकती हुई बुलबुल शाइ'र थी सुख़न-संज थी एजाज़-ए-बयाँ थी बेताब हुआ जाता है दिल ज़िक्र से उस के क्या पूछते हो कौन थी वो और कहाँ थी दुनिया-ए-तदब्बुर में थी यकता-ए-ज़माना हाथ उस के थे और उन में हुकूमत की इनाँ थी दस्तूर-ए-अदालत के लिए उस का क़लम था फ़रमान-ए-रेआ'या के लिए उस की ज़बाँ थी वो शम-ए-शब-अफ़रोज़ थी परवाना जहाँगीर ये बात भी दोनों की मोहब्बत से अयाँ थी लाहौर में देखा उसे मदफ़ूँ तह-ए-मर्क़द गर्द-ए-कफ़-ए-पा जिस की कभी काहकशाँ थी पैवंद-ए-ज़मीं हो गए अब कौन बताए 'कैफ़ी' ये जहाँगीर था वो नूर-जहाँ थी