हैं जसोधा के लिए ज़ीनत-ए-आग़ोश कहीं गोपियों के भी तसव्वुर से हैं रू-पोश कहीं द्वारका-जी का बसाना तो मुबारक लेकिन कर न दें ब्रिज की गलियों को फ़रामोश कहीं खा के तंदुल कहीं ए'ज़ाज़ सुदामा को दिया साग ख़ुश हो के 'बिदुर-जी' का किया नोश कहीं ख़ुद बचन दे के 'जरा' सिंध से रन में भागे रहे बद-गोई-ए-शिशुपाल पे ख़ामोश कहीं द्वारका-धीश कहीं बन के मुकुट सर पे रखा काली कमली रही जंगल में सर-ए-दोश कहीं गोपियाँ सुन के मुरलिया हुईं ऐसी बेताब गिर गए हार कहीं रह गई पा-पोश कहीं मध-भरे नैन से आँखें न मिलाओ 'कैफ़ी' लोग मशहूर न कर दें तुम्हें मय-नोश कहीं