मिरे देस की उन ज़मीनों के बेटे जहाँ सिर्फ़ बे-बर्ग पत्थर हैं सदियों से तन्हा जहाँ सिर्फ़ बे-मेहर मौसम हैं और एक दर्दों का सैलाब है उम्र-पैमा पहाड़ों के बेटे चमेली की निखरी हुई पंखुड़ियाँ संग-ए-ख़ारा के रेज़े सजल दूधिया नर्म जिस्म और कड़े खुरदुरे साँवले दिल शुआ'ओं हवाओं के ज़ख़्मी चटानों से गिर कर ख़ुद अपने ही क़दमों की मिट्टी में अपना वतन ढूँडते हैं वतन ढेर इक अन-मंझे बर्तनों का जिसे ज़िंदगी के पसीनों में डूबी हुई मेहनतें दर-ब-दर ढूँढती हैं वतन वो मुसाफ़िर अंधेरा जो ऊँचे पहाड़ों से गिरती हुई नद्दियों के किनारों पे शादाब शहरों में रुक कर किसी आहनी छत से उठता धुआँ बन गया है नदी भी ज़र-अफ़्शाँ धुआँ भी ज़र-अफ़्शाँ मगर पानियों और पसीनों के अनमोल धारे में जिस दर्द की मौज है उम्र-पैमा ज़मीरों के क़ातिल अगर उस को परखें तो सीनों में काली चटानें पिघल जाएँ!