एक वो पल जो शहर की ख़ुफ़िया मुट्ठी में जुगनू बन कर धड़क रहा है उस की ख़ातिर हम उम्रों की नींदें काटते रहते हैं ये वो पल है जिस को छू कर तुम दुनिया की सब से दिलकश लज़्ज़त से लबरेज़ इक औरत बन जाती हो और मैं एक बहादुर मर्द हम दोनों आदम और हव्वा पल के बहिश्त में रहते हैं और फिर तुम वही डरी डरी सी बसों पे चढ़ने वाली, आम सी औरत और मैं धक्के खाता बोझ उठाता आम सा मर्द दोनों शहर के चीख़ते दहाड़ते रस्तों पर पल भर रुक कर फिर उस पल का ख़्वाब बनाते रहते हैं