पर्दा-दारी By Nazm << तुम नीम पागल >> ज़िंदगी के सारे सफ़्हे कहीं भी कभी भी खोल देना मुनासिब नहीं कुछ बे-ईमानी हो जाती है इन में लिखे हर्फ़ बे-पर्दा होते ही क़द्र तो हमेशा पर्दा-दारी की ही हुआ करती है जैसे हिजाब में लिपटी कोई दिल-रुबा या फिर किसी किताब का बिना पढ़ा हुआ वो आख़िरी पन्ना Share on: