वो एक नीम पागल लड़की बैठी रहती थी किनारे पर बाँधे उम्मीद की डोर कि लौट आएगी उस की कश्ती जो बह गई थी तेज़ लहरों में कभी किनारे पर ही दिखती थी सुब्ह शाम हर आने वाली लहर की आहट भर से चमक जाती थीं उस की आँखें लेकिन हर आती लहर ख़ाली हाथ ही आती और लौटती तो ले जाती पैरों की ज़मीं भी देखती रहती वो चढ़ते और उतरते सूरज के नारंगी रंग को सुब्ह की सिंदूरी लाली शाम को दहकाती उस के दिल में अंगारे वो एक नीम पागल लड़की बैठी रहती थी किनारे पर कुछ दिनों से दिखती नहीं अब शायद इंतिज़ार नहीं कर सकी कुछ और रोज़ रोक नहीं सकी ख़ुद को और चली गई लहरों की ओर अपनी कश्ती की तलाश में दूर बहुत बहुत दूर तलक वो एक नीम पागल लड़की