पज़ीराई

दिल बढ़ा उस की पज़ीराई को
हाथों में उठाए

सब्ज़ जुगनू
नुक़रई गुल

सुर्ख़ नारंजी सुनहरी काँपती लौ का चराग़
ऐसी गुल-रू थी कि जब आती नज़र के सामने

सारी सम्तों में महक उठते थे बाग़
ऐसी मह-रुख़ थी अँधेरे में भी

जब दिल के क़रीब आता कभी उस का ख़याल
इस अदा से सर पे रक्खे

चाँद-तारों से भरा पूरा फ़लक
जैसे हो इक छोटा सा थाल

ऐसी दिलबर थी कि जब रख देती
दिल के दिल पे हाथ

भूल जाता ज़िंदगी के रंज
ग़ैरों के दिए सब ज़ख़्म

अपनों से सुनी हर तल्ख़ बात
और गई तो ले गई

हर इक ख़ुशी हर रौशनी को अपने साथ
ज़िंदगी क्या जगमगाती

बुझ गई जब काएनात
किस तरह ज़िंदा रहा दिल

आदतन धड़का क्या दिल
रास्ते में

बस इसी के रास्ते में
उम्र-भर ठहरा रहा दिल

और ज़हे क़िस्मत चली आती है फिर से
अपने चेहरे पर सजाए

इक नदामत
मुस्कुराहट में ख़जालत

आँख में लेकिन वही पहली क़यामत
खुल उठा है दिल

बढ़ा है सर पे रक्खे
झिलमिलाती आरज़ूओं और उम्मीदों का ताज

दिल बढ़ा
पहली मोहब्बत

और नए ग़म की पज़ीराई को आज


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