सहर-दम के जब चार पच्चीस बजते हैं लोकल गुज़रती है मुद्दत हुई मैं उसी वक़्त बेदार होता हूँ यूँ ज़िंदगी के तसलसुल का हिस्सा रहा हूँ कई साल पहले जो मैं ने कहानी लिखी थी उसे आज फिर पढ़ रहा हूँ घड़ी की तरफ़ भी निगाहें हैं मेरी उदासी में डूबा चला हूँ कहानी के किरदार यूँ सामने मुस्कुराते खड़े हैं कि जैसे अभी आज इसी एक लम्हे में तख़्लीक़ हाथों से मेरे हुई इन की मैं देखता हूँ ये ज़ाकिर ये सलमा ये सलमा की अम्मी ये सलमा की छोटी बहन गोरी जापानी गुड़िया शरारत से कुर्ते पे मेरे क़लम की सियाही से तजरीदी पेंटिंग में मशग़ूल हँसती चली जा रही है कहानी के किरदार लफ़्ज़ों की चादर में लिपटे हुए सो रहे हैं मगर गुफ़्तुगू उन की सब इख़तिराई थी मेरी सभी बातें मैं कर रहा था मुझे फ़िक्र है मेरी लोकल न छूटे ज़माना हुआ इस कहानी में मैं भी कहीं हूँ कहानी सुनाता हूँ किरदार के मुँह से मैं बोलता हूँ अचानक वो किरदार माज़ी की ख़्वाबीदा बोझल फ़ज़ा से निकल कर मिरे सामने आ खड़े हों तो मुमकिन है पहचान उन की मिरे वास्ते ख़ूब तकलीफ़-दह जाँ-गुसिल और दुश्वार हो मैं उदासी में डूबा चला हूँ कई साल पहले जो मैं ने लिखी थी कहानी इसे पढ़ रहा हूँ कहीं पहली लोकल न छूटे कहानी न बन जाऊँ मैं भी कहीं दूसरा मुझ को पढ़ने न बैठे कोई