बहुत शादाँ-ओ-फ़रहाँ हो सुना है ज़िंदगी की ने'मतें आसाइशें जो तुम ने चाही थीं मयस्सर हैं भरे घर में हर इक की आँख का तारा बनी मसरूफ़ रोज़-ओ-शब बहुत ख़ुश-काम रहती हो बहुत ख़ुश-काम रहती हो ख़ुदा तुम को हयात-ए-शादमाँ बख़्शे फ़रोज़ाँ हो हर इक लम्हा बहार-ए-ऐश-ओ-इशरत से यहाँ मैं मुतमइन हूँ रोज़-ओ-शब की चीरा-दस्ती से बहुत महफ़ूज़ शादाँ और फ़रहाँ ज़िंदगी की दौड़ में सब मरहलों पर कामराँ ख़ुश-काम ज़िंदा हूँ बहुत ही ख़ूबसूरत मोड़ था अपनी जुदाई का ज़बाँ लर्ज़ी न कोई दुख हुआ आवाज़ में शामिल शिकस्त-ए-ख़्वाब का नौहा न मर्ग-ए-आरज़ू का ग़म कोई एहसास-ए-महरूमी न एहसास-ए-ज़ियाँ कोई जबीनों पर शिकन आई न पलकों पर सितारे टूट कर बिखरे न चेहरों पर तरद्दुद के निशाँ उभरे न तुम कर्ब-ए-जुदाई से तड़प उट्ठीं न मैं रोया हमारे दरमियाँ जो रब्त था क्या नाम था उस का