वो दूर प्यासी ज़मीं को देखो कि जिस के दामन की वुसअ'तों में ज़रूरतें ले रही हैं अंगड़ाइयाँ मुसलसल उफ़ुक़ उफ़ुक़ पर उँडेलती हैं सराब करती हैं हर जिहत को ग़ुबार पहनाइयाँ मुसलसल वो दूर प्यासी ज़मीं को देखो झुलसती आँखों से देखती है फ़लक की जानिब दहकते होंटों से चाहती है सुलगते लहजे से कह रही है कोई तो हो जो मिरी शिकस्ता अना के लाशे पे चार आँसू बहाता जाए ये प्यास मेरी मिटाता जाए हवा के झोंके अभी अभी ये पयाम लाए कि दूर प्यासी ज़मीं के सीने पे दाग़ बन कर बरस चुकी हैं दो-चार बूँदें