एक रजअ'त के मरहले में रहूँ मैं पलटने के मश्ग़ले में रहूँ ये तक़ाज़ा था जाने वालों का बिछड़ी नस्लों से राब्ते में रहूँ मैं कड़ी हूँ गए ज़मानों की शहर-ए-माज़ी के ख़ाक दानों की राख होते हुए जहानों की भूले-बिसरे हुए फ़सानों की सह सकेगा न अब मिज़ाज अपना नीश-ए-वहशत की दर्द अंगेज़ी अपनी अक़दार से तसादुम-ख़ेज़ दर्द-ए-एहसास की नुमू-ख़ेज़ी हम को जो मिल गया तसलसुल से नज़र-ए-तूफ़ान-ए-संग तो न करें अपने अस्लाफ़ से जो फ़ैज़ मिला उस को वहशत ब-रंग तो न करें हमें नामूस की विरासत को शो'ला-ए-जाँ बना के रखना है अपने माज़ी से राब्ते के लिए अपना विर्सा बचा के रखना है अपने मिटते हुए हवालों को आने वालो बचा के रखना है हम को अब आस के जज़ीरों में कश्तियों को जला के रहना है वर्ना ये रब्त टूट जाएगा और तसलसुल भी छूट जाएगा