ऐ वादी-ए-ख़ुश्क-ओ-सब्ज़ पर्बत तू अपनी ख़ुश्बू से डर रही है तिरे सहीफ़ा-नुमा बदन पर ये कैसी आयत उतर रही है तिरे फ़ुसूँ-नाक रास्तों पर घनेरी रुत की मसाफ़तें हैं फ़ज़ाएँ पहरों में बट चुकी हैं हवाओं तक में अदावतें हैं सुकूत-ए-ज़िंदाँ की पुतलियों पर निगाह-ए-तीरा-नज़र का दुख है हर एक रौज़न से आता जाता इधर का दुख है उधर का दुख है फ़रिश्तगान-ए-वही के हाथों से सारे अल्फ़ाज़ गिर चुके हैं क़लंदरान-ए-रिवायत-ए-रद ख़ुद अपने दीं से ही फिर चुके हैं बग़ावतों के अलम पे कंदा इताअ'तों का निशान-ए-वाक़िफ़ उसूल गाहों के मिम्बरों पर शराइत-ए-हुक्म-ओ-शैख़-ओ-मुंसिफ़ तिरे तनफ़्फ़ुस के पेश-ओ-पस पर लबों की लग़्ज़िश गवाह जैसे तिरी जबीं पर उगी लकीरें सफ़-ए-शिकस्ता सिपाह जैसे सो अब फ़क़त दिन गुज़र रहे हैं सदा-ए-ज़ंजीर-ए-मुस्तक़िल से न रौनक़-ए-नौ न धूप की लौ उतर गई जान जैसे दिल से शराब आँखों से उगता झरना भटक के रस्ता सा बन रहा है बढ़ा तअद्दुद सुरूर-ओ-मय का जुनून दस्तक को जन रहा है ऐ वादी-ए-ख़ुश्क-ओ-सब्ज़ पर्बत तू अपनी ख़ुशबू से डर रही है तिरे सहीफ़ा-नुमा बदन पर ये कैसी आयत उतर रही है