मैं उमीदों की ये बुझती किरनें लिए यूँ अँधेरों में कब तक भटकती फिरूँ अपने ज़ख़्मों पे फैलाऊँ मैं कब तलक बे-सदा ख़्वाहिशों की सुलगती क़बा और फिर कब तलक तिश्नगी के जो पैवंद हैं जा-ब-जा इस जहाँ की नज़र से छुपाती फिरूँ कब तलक मैं सुनूँ नग़्मा-ए-ज़िंदगी हर उखड़ती हुई साँस के साज़ पर कब तलक यूँ जमाए रहूँ मैं क़दम वक़्त की इस ख़तरनाक ढलवान पर जिस की फिसलन लिए जा रही है उसे दूर मुझ से बहुत दूर जाने किधर दिन-ब-दिन उस की मादूम होती हुई धुँदली धुँदली सी परछाइयाँ देख कर जी कहे आत्मा का गला घोंट दूँ और फिर यास के तिलमिलाते हुए अंधे वहशी बगूलों की यूरिश बनूँ रक़्स-ए-वहशत करूँ