न जाने कब से यूँही दिल-शिकस्ता बैठी हूँ उदास चेहरे को अपनी हथेलियों में लिए गुज़रने वाली है रात और मेरी आँखों में जला रही है तिरी याद आँसुओं के दिए मिरा ख़याल था उन ज़र-निगार महलों में वो दिल-कशी है कि मैं तुझ को भूल जाऊँगी नशात-ए-ताज़ा के एहसास की शुआ'ओं से शबाब-ओ-हुस्न की राहों को जगमगाऊँगी मगर ख़बर न थी ये शोख़-ओ-शंग हंगामे मिरी जवान उम्मीदों का हुस्न लूटेंगे सुनहरे ख़्वाब ख़िज़ाँ-दीदा पत्तियों की तरह उजड़ा उजड़ के बड़ी हसरतों से टूटेंगे मैं सोचती हूँ कि इक जिस्म के पुजारी को मिरी वफ़ा ने वफ़ा का सुहाग क्यूँ समझा हवस के साज़ पे गाए हुए तराने को धड़कते दिल की मोहब्बत का राग क्यूँ समझा ये सीम-ओ-ज़र की बहारों का दौर-ए-सरमस्ती मिरी फ़सुर्दगी-ए-रूह को न रास आया थकी थकी सी जवानी बुझी बुझी सी हयात मैं सोचती हूँ तुझे खो के मैं ने क्या पाया ये ठीक है कि तिरा प्यार सीम-पोश न था वफ़ा-शनास था लेकिन वफ़ा-फ़रोश न था