सोच रही हूँ अरमानों के पिंजरे से पंछी को आज़ाद करूँ मैं दिल के बहलाने को मैं ने घर के गुल-दानों में कब से मुर्दा ख़्वाब सजा रखे हैं कमरे को कुछ साफ़ करूँ मैं संदल की लकड़ी के नीचे धीरे धीरे चिल्लाती इक आस रखी है इक कोने में जीती मरती ख़्वाहिश की एक साँस पड़ी है जाने कितने बरसों की आतिश-दान में राख पड़ी है