मिरे आँगन में बिखरे ज़र्द पत्ते मुझे हमराज़ लगते हैं ये जब हल्की हवा की सरसराहट से लरज़ते हैं तो यूँ लगता है जैसे उन पे कोई भेद सा खुलने लगा है जैसे उन को बावर हो गया है कि ख़ुद शाख़ों ने बेपरवाई से दामन छुड़ाया है ज़मीं ने भी निगाहें फेर ली हैं उन्हें मालूम है शायद ज़मीं पैरों तले ही जब न हो तो जितना मर्ज़ी सर पटख़ लें टहनियों को थाम लें बे-फ़ाएदा है अब उन्हें बे-आसरा रहना पड़ेगा कभी पैरों में आ कर चरमराना हवा के दोष पर उड़ते बिखरते ही चले जाना पड़ेगा वजूद अपना किसी गुमनाम गोशे में छुपा कर राइगानी की अज़िय्यत उन को सहते ही चले जाना पड़ेगा ख़याल आता है कितनी बे-निशाँ बे-मोल बे-वक़'अत सी उन की ज़िंदगी है मगर ये बे-निशानी जिन ख़लाओं को जनम देती है उन्हें भरने को जीवन कोंपलों से आख़िर इक दिन फूटता है यही इक सोच मुझ को अपने आँगन में बिखरते चरमराते ज़र्द पत्तों से बहुत मानूस रखती है बहुत नज़दीक रखती है