रेशम जाल By Nazm << इल्तिबास कार-ए-अबस >> प्यार के रेशम लच्छों को ख़ुद ही उलझाती हूँ पहरों बैठ धनक रंगों को फिर सुलझाती हूँ मेरी चाहत ने काते हैं रेशम के ये सार इन में उलझ जाने से मैं फिर क्यों घबराती हूँ अपने ख़ोल में रेशम का कीड़ा भी ख़ुश तो नहीं मैं भी तितली बन कर मौक़ा पा उड़ जाती हूँ Share on: