मौसम बाहें खोल रहा है गदराई है शाम बसंती दिन चुपके से देख रहा है लम्हों का इक थाल सुनहरा दिल ने कैसे थाम रखा है आँचल में है एक सितारा झिलमिल झिलमिल बोल रहा है धक धक धक धक एक ही बोली दिल का पिंजरा खोल रही है बेचैनी का रक़्स अनोखा इक इक सर की ताल अजब है ख़ुशबू की भी आँच ग़ज़ब है सारा आँगन दहक रहा है नज़्म सब कुछ नहीं लिख सकती सर नेहवड़ाए चबाती रहती है नाख़ुन खरोंचती रहती है दिल भीगी हुई हथेली से मसल देती है सारे मंज़र हवा ख़ाक भर देती है नज़्म की आँखों में पत्थर की सिल कुचल देती है नज़्म की पोरें और नज़्म कत्बे नहीं लिख सकती