किस नाज़ किस अदा से नसीम-ए-सहर चली बू की तरह रवाँ हुई मिस्ल-ए-नज़र चली बाग़ों का रुख़ किया तो गिराती समर चली शबनम की पत्तियों को लुटाती गुहर चली फूलों के जाम बादा-ए-मस्ती से भर चली अहल-ए-चमन को ख़्वाब से बेदार कर चली रू-ए-चमन को देख के ज़ीनत मचल पड़ी सब्ज़े को छेड़-छाड़ के लहरा के चल पड़ी तख़्ते गुलों के चश्म-ए-ज़दन में खिला चली ख़ुश्बू के और शमीम के दरिया बहा चली सज्दे में शुक्र के लिए शाख़ें झुका चली चिड़ियों को शाख़ शाख़ पे झूला झुला चली पत्तों को लड़खड़ाती हुई जा-ब-जा चली बज़्म-ए-तरब का रंग चमन में जमा चली सुम्बुल को ज़ुल्फ़-ए-नाज़ को सुलझा के चल पड़ी दामन को ख़ार ख़ार से उलझा के चल पड़ी