सच कहाँ है तारीख़ के औराक़ में तारीख़ से बड़ा धोका तो कुछ नहीं तारीख़ तो अपने अपने दलालों के मा-तहत रही कोई झूट किस तरह सच में तब्दील हो जाता है इस का जवाब देने के लिए सीता बाक़ी न रही हर उस मोड़ पे बात अधूरी रह गई जो अगर मुकम्मल हो जाती तो अहल-ए-फ़साद का कारोबार कैसे चलता तो क्या किसी चीज़ को हलाल करने के लिए हराम की आमेज़िश दरकार है कहीं ऐसा तो नहीं रसूल के नाम लेवा अबु-जेहल के रास्ते पर चल पड़े हों कहीं ऐसा तो नहीं फ़लसफ़ा-ए-शहादत का दर्स यज़ीद दे रहा हो