मई के महीने का मानूस मंज़र ग़रीबों के साथी ये कंकर ये पत्थर वहाँ शहर से एक ही मील हट कर सड़क बन रही है ज़मीं पर कुदालों को बरसा रहे हैं पसीने पसीने हुए जा रहे हैं मगर इस मशक़्क़त में भी गा रहे हैं सड़क बन रही है मुसीबत है कोई मसर्रत नहीं है उन्हें सोचने की भी फ़ुर्सत नहीं है जमादार को कुछ शिकायत नहीं है सड़क बन रही है जवाँ नौजवाँ और ख़मीदा कमर भी फ़सुर्दा जबीं भी बहिश्त-ए-नज़र भी वहीं शाम-ए-ग़म भी जमाल-ए-सहर भी सड़क बिन रही है जमादार साए में बैठा हुआ है किसी पर उसे कुछ इताब आ गया है किसी की तरफ़ देख कर हँस रहा है सड़क बन रही है ये बे-बाक उल्फ़त पर अल्हड़ इशारा बसंती से रामू तो रामू से राधा जमादार भी है बसंती का शैदा सड़क बन रही है जो सर पे है पगड़ी तो हाथों में हंटर चला है जमादार किस शान से घर बसंती भी जाती है नज़रें बचा कर सड़क बन रही है समझते हैं लेकिन हैं मसरूर अब भी उसी तरह गाते हैं मज़दूर अब भी बहर-हाल वाँ हस्ब-ए-दस्तूर अब भी सड़क बन रही है