मैं जानता हूँ शुऊर की तह के फाटकों पर जो क़ुफ़्ल है, वो कलीद भी है मैं जानता हूँ कि फाटकों को मैं खोल सकता हूँ, जब भी चाहूँ मगर मुझे अपने जिस्म को भेंट करना होगा कटाना होगा बदन को अपने कि जूँही फाटक खुलेंगे मुझ को बशर से हैवान बनना होगा करोड़ों बरसों के इर्तिक़ा को फलाँग कर पीछे जाना होगा शुऊर की तह के फाटकों से परे जो बैठी है काली-देवी वही मुझे ''इर्तिक़ा'' से पीछे फलांगने का पयाम दे कर ये कह रही है ''तुम एक हैवाँ थे, एक हैवाँ हो ये बात अच्छी तरह समझ लो'' मैं सुन रहा हूँ ख़ुद अपनी आवाज़ में ये जुमला कि मैं तो तुम तक पहुँच गया था गुज़िश्ता शब चाँद के निकलने से पेश-तर ही लिबास उतरे हुए बदन पर मिरी रगों से उमडता मेरा लहू तो तुम ने ज़रूर देखा है, काली देवी वो हड्डियाँ जिन से गोश्त नोचा गया था मेरा सपीद जैसे धुली हुई हों! उठो मिरे ला-शुऊर में बैठी काली-देवी मुझे समेटो सियाह बाहोँ में आगे आ कर कि मैं ने ये बंदगी इताअत ख़ुद अपनी मर्ज़ी से, अपने दिल से क़ुबूल की है मिरा लहू, मेरी हड्डियाँ, मेरा गोश्त हत्ता कि रूह मेरी तुम्हें समर्पण है, मेरी देवी मैं जानता हूँ शुऊर की तह के फाटकों पर जो क़ुफ़्ल है वो कलीद भी है मगर कभी इक सवाल सा अपना सर उठाता है मेरे दिल में कलीद को फेंक दूँ अगर तो?