क़दम क़दम पे अक़ीदत से सर है ख़म मेरा चला है सू-ए-रह-ए-मो'तबर क़लम मेरा दिल-ओ-दिमाग़ को ऊँचा बना दिया जिस ने फ़ुयूज़-ए-इल्म से आ'ला बना या जिस ने बड़े ख़ुलूस से देता था दर्स-ए-इंसानी हुए हैं जिस की बदौलत ज़मीर नूरानी वो जिस ने राह-ए-मोहब्बत दिखाई थी हम को वो जिस ने रस्म-ए-उख़ुव्वत सिखाई थी हम को वो जिस ने बरतर-ओ-बाला ख़याल बख़्शा था जो ला-ज़वाल है ऐसा कमाल बख़्शा था वो एक फ़िक्र जो बा-ए'तिबार करती है नज़र में काबिल-सद-इफ़्तिख़ार करती है वो जिस ने ज़ीस्त सजाई जलाए दिल के चराग़ उसी के सोज़ ने बख़्शी हमें मता-ए-दिमाग़ उसी ने तर्ज़-ए-तकल्लुम की चाशनी दी है उसी ने इल्म की ख़ुश-रंग ज़िंदगी दी है उसी ने हर्फ़-ए-हिदायत से सरफ़राज़ किया ख़ुदा का शुक्र हमें आश्ना-ए-राज़ किया गुलों से प्यार अनादिल से उस का याराना सुकून-ओ-अम्न का मरकज़ था उस का काशाना मता-ए-इल्म लुटाती रही है ज़ात उस की बहुत दराज़ थी ज़ुल्फ़-ए-नवाज़िशात उस की रुख़-ए-हयात को बख़्शी है इक जिला उस ने शुऊ'र ज़ौक़-ए-नज़र का अता किया उस ने सुकून दिल को मयस्सर था उस की क़ुर्बत से हम अहल-ए-हिन्द की अज़्मत है उस की निस्बत से उफ़ुक़ पे उभरा जो वो अल-हिलाल की सूरत जवान हो के रही अल-बलाग़ की फ़ितरत हैं तज़्किरे में कुछ ऐसे नुक़ूश-ए-फ़िक्र-ए-जमील गुबार-ए-ख़ातिर-ओ-ख़ुतबात की सजें क़िंदील जो तर्जुमान से फैली कलाम की ख़ुश्बू सँवारे उस ने ही पेचीदा अक़्ल के गेसू उसी ने साज़-ए-अदब को सदा-ए-नौ बख़्शी शिकस्ता-दिल को अनोखी अदा-ए-नौ बख़्शी दयार-ए-गुल में वो आया था मुस्कुराता हुआ हर एक ख़ार-ए-चमन को गले लगाता हुआ गुलों का रंग सबा का शिआ'र लाया था वो इक बहार था हुस्न-ए-बहार लाया था न उस बहार से अब तक भरा था दिल अपना कि चंद लम्हों को उस से लगा था दिल अपना क़ज़ा-ए-हुस्न चमन को चमन से छीन लिया शबाब जैसे नवेली दुल्हन से छीन लिया बहार है न वजूद-ए-बहार बाक़ी है दिलों में याद-ए-नुमूद-ए-बहार बाक़ी है बुज़ुर्ग-ओ-मुख़लिस-ओ-आली-वक़ार था वो शख़्स कि एक मुंतख़ब-ए-रोज़गार था वो शख़्स