जंगल जंगल आग लगी है बस्ती बस्ती वीराँ है खेती खेती राख उड़ती है दुनिया है कि बयाबाँ है सन्नाटे की हैबत ने साँसों में पुकारें भर दी हैं ज़ेहनों में मबहूत ख़यालों ने तलवारें भर दी हैं क़दम क़दम पर झुलसे झुलसे ख़्वाब पड़े हैं राहों में सुब्ह को जैसे काले काले दिए इबादत-गाहों में एक इक संग-ए-मील में कितनी आँखें हैं पथराई हुई एक इक नक़्श-ए-क़दम में कितनी रफ़्तारें काफ़्नाई हुई हम-सफ़रो ऐ हम-सफ़रो कुछ और भी नज़दीक आ के चलो जब चलना ही मुक़द्दर ठहरा हाथ में हाथ मिला के चलो