तेरे सफ़र का अंत नहीं है तुझ को चलते जाना है क़लम की धारा तुझ को तो अब सदा ही बहते जाना है माना सफ़र बहुत लम्बा है जाना तुझ को दूर है कोई नहीं है साथ में तेरे फिर भी क़दम बढ़ाना है इस धरती का ज़र्रा ज़र्रा दामन में भर लेना है पल पल हर मंज़र का तुझ को एक इक हर मंज़र का तुझ को एक इक नक़्श समोना है तेरे सफ़र का अंत नहीं है तुझ को चलते जाना है देख कभी तो मौसम-ए-गुल को पतझड़ की आवाज़ों में और कभी तू पर्बत बन जा और कभी बह सागर में सहराओं में तन्हा चल और हँसता जा गुलज़ारों में पत्थर से उगा ले फूलों को ख़ारों में शीरीनी भर दे रोती शबनम ढलता सूरज साँझ की सुंदर बेला भी सुब्ह का तारा चाँद का हाला हर मौसम अलबेला भी बहुतों से मिलना है बाक़ी खो गए हैं सब तेरे साथी थक कर हो न चूर अभी बैठ गया गर वहीं अंधेरा मिल जाएगा मुँह भाड़ से तू तो क़लम लिखने की ख़ातिर हर दम माँगे उजयारा चुन चुन कर उजला उजला-पन तुझ को लिखते जाना है इसी उजाले की ख़ातिर ही तुझ को चलते जाना है तेरे सफ़र का अंत नहीं है तुझ को चलते जाना है