वो जिस्म जिस को अँधेरे ने चाँदनी में बुना वो जिस्म जिस को तराशा नहीं गया था मगर वो जिस्म ख़ुद ही तराशा हुआ था इक पैकर वो जिस्म जिस के वसीले से उस जज़ीरे की जो सैर मैं ने कभी की थी भूलना है अबस वो फ़ासला कि जो सदियों में तय नहीं होगा वो तय हुआ था फ़क़त सिर्फ़ चंद लम्हों में मिरी रगों में अभी ख़ून मुंजमिद है मगर तुम्हारी याद की पुर्वा कभी जो बहती है तो अपने होने का एहसास जागता है बहुत अलग ये बात कि ये जिस्म-ए-ना-तवाँ मेरा सफ़र से लौटते लम्हों में हाँफता है बहुत