ये रात कब तक ये चाँद कब तक फ़लक पे जलते चराग़ कब तक ये बज़्म-ए-मय ये नशात कब तक अगर रहे भी ये सब जो क़ाएम तो आदमी की हयात कब तक चलो अंधेरे पुकारते हैं चलो नसीबा बुला रहा है हमें मुक़द्दर पुकारता है ये सर ये सीना ये दस्त-ओ-बाज़ू ये जिस्म सारा फ़िगार है अब न लफ़्ज़-ओ-मा'नी न सौत-ओ-नग़्मा ये सारा दफ़्तर उजड़ गया है किसी की मिज़राब खो गई है किसी का बरबत बिगड़ गया है