नुक़्ता-ए-सिफ़्र पर वक़्त का पाँव था ज़द में सैलाब की जब हर इक गाँव था नूह ने अपनी कश्ती को तख़्लीक़ की जुमला अनवा'अ से भर लिया रुबअ' मस्कों के सैलाब पर अपनी कश्ती लिए कोह-ए-जूदी की चोटी को सर कर लिया नूह के वास्ते जिस परिंदे की मिन्क़ार में बर्ग-ए-ज़ैतून था वो उमीद-ए-मुसलसल का क़ानून था हम जो कश्ती से और बर्ग-ए-ज़ैतून से कोह-ए-जूदी से महरूम हैं मुब्तला हम को इस इम्तिहाँ में क्या किस लिए इतनी लाशों मकानों के मलबों उखड़ते दरख़्तों सिसकते परिंदों शिकस्ता बदन रेवड़ों को कहाँ ले के जाएँ हम तो सैलाब से क़ब्ल भी मुस्तक़िल एक सैलाब की ज़द में हैं भूक इफ़्लास बीमारियाँ ज़ुल्म नादारियाँ बद-दियानत शबों की सियह-कारियाँ एक पुर-हौल सैलाब से कम नहीं गर्दिश-ए-रोज़-ओ-शब से निकलते हुए नूह ने राह पाली थी जीने की ख़ातिर और तूफ़ान भी रुक गया था सफ़ीने की ख़ातिर अब हमारे लिए कोई मुरक्कब नहीं कोई कश्ती नहीं जिस के बल पर कहीं पार उतर जाएँ हम नुक़्ता-ए-सिफ़्र पर वक़्त के पाँव की तरह इक पल ठहर जाएँ हम जब ये कुछ भी मयस्सर नहीं है तो फिर हम को फ़ितरत के क़ानून अब आज़माते हैं क्यूँ नूह के बा'द तूफ़ान आते हैं क्यूँ