कितने असनाम ना-तराशीदा पत्थरों ही में कसमसाते हैं कितने ही ना-शगुफ़्ता लाला-ओ-गुल ज़ेहन-ए-बुलबुल को गुदगुदाते हैं कितने ही जल्वा-हा-ए-नादीदा अभी पर्दे में मुस्कुराते हैं ना-सराईदा कितने ही नग़्मे दिल के तारों से लिपटे जाते हैं किस ने छेड़ा है साज़-ए-मुस्तक़बिल आज लम्हात गुनगुनाते हैं किस ने छेड़ा है साज़-ए-मुस्तक़बिल आज लम्हात गुनगुनाते हैं