रात के पहलू में बैठा है सुनहरी अज़दहा अहमरीं फुन्कार के मद्धम सुरों का शोर है इस घड़ी लगता है वो कुछ और है बंद होते और खुलते दाएरों के दरमियाँ आप अपनी ज़ात के गिर्दाब में जैसे कोई देवता मेहराब में वक़्त के इस नक़्शा-ए-मुबहम पे कौन उस के मस्कन का लगाएगा सुराग़ कौन रक्खेगा हथेली पर चराग़ इस के नीश-ए-आरज़ू के ज़ाइक़े चक्खेगा कौन किस को दिलदारी की फ़ुर्सत है यहाँ हाँ मगर ये रात है इस की रफ़ीक़ देर तक अपना बदन डसवाएगी सुबह होने तक उसी के रंग में रंग जाएगी