ग़ुबार-ए-सुब्ह-ओ-शाम में तुझे तो क्या मैं अपना अक्स देख लूँ मैं अपना इस्म सोच लूँ नहीं मिरी मजाल भी कि लड़खड़ा के रह गया मिरा हर इक सवाल भी मिरा हर इक ख़याल भी मैं भी बे-क़रार ओ ख़स्ता-तन बस इक शरार-ए-इश्क़ मेरा पैरहन मिरा नसीब एक हर्फ़-ए-आरज़ू वो एक हर्फ़-ए-आरज़ू तमाम उम्र सौ तरह लिखूँ मिरा वजूद इक निगाह-ए-बे-सुकूँ निगाह जिस के पाँव में हैं बेड़ियाँ पड़ी हुई