हबीब तू है समी'-उल-'अलीम भी तू है अज़ीम तू है रहीम-ओ-करीम भी तू है हवाएँ तेरी हैं लैल-ओ-नहार तेरे हैं पहाड़ दश्त ये सब आबशार तेरे हैं है तू ही क़ादिर-ए-मुतलक़ जहान तेरे हैं ज़मीन तेरी है और आसमान तेरे हैं तिरे करम की कोई इंतिहा नहीं मौला तिरे निज़ाम में सब कुछ है क्या नहीं मौला तिरे हुज़ूर में हैं नज़्र मेरे दिल के सुजूद मगर ये रुख़ भी तो है काएनात का मा'बूद ये काएनात जो तख़्लीक़-ए-ज़ात है तेरी अज़ल से इस के मुक़द्दर में इंतिशार है क्यों ज़मीं पे आए थे आदम तिरी मशिय्यत से जो तेरी बज़्म से रुस्वाइयाँ भी लाए थे तिरी बहिश्त में दिल अपना छोड़ आए थे उदासियों का अभी तक वो ही हिसार है क्यों ये काएनात तो तख़्लीक़-ए-ज़ात है तेरी ये काएनात तिरी शान-ए-किब्रियाई है अगर बनाया है इस को तो रख इसे महफ़ूज़ ये रोज़ रोज़ फ़सादात क्यों उभरते हैं तिरे ही बंदे हैं जो बे-गुनाह मरते हैं ग़ुरूर-ए-मोहतसिब-ओ-शहर-दार है हर-सू फ़साद भी तो तिरे नाम पर ही होते हैं हरीम-ए-दिल के दर-ओ-बाम हिल रहे हैं बहुत तिरे ही नाम से संगीनियाँ उभर आईं वो देख तेरे ही घर की तरफ़ है रुख़ उन का जिधर निगाह उठी नफ़रतें नज़र आईं क़लंदरों के मक़ाबिर पे ख़ाक उड़ती है मुनाफ़िक़त के अँधेरों का बोल-बाला है तिरे फ़क़ीहों ने हाकिम से दोस्ती कर ली सलामती में हरम है न अब शिवाला है वो देख जानिब-ए-मेहराब फिर हुई यूरिश वो एक सर है जो नेज़े पे रक्खा जाता है किसी का ख़ुश्क गला है किसी का ख़ंजर है जो सर उठाऊँ तो आँखों में ख़ून आता है जमाल-ए-हस्ती-ए-नौ-ए-बशर है ख़तरे में ये काएनात तिरी शान-ए-किब्रियाई है मुनाफ़िक़ों से बचा ले हसीन चेहरों को जो दिल की बात थी मेरी ज़बाँ तक आई है तिरी सिफ़ात पे सज्दे हज़ार करता हूँ मैं अब ज़बान न खोलूँगा तुझ से डरता हूँ